केला की खेती (Banana farming)
(वैज्ञानिक नाम-Musa Paradisiaca)
(कुल-Musaceae)
उपयोगिताजनसाधारण द्वारा उपभोग में लाये जाने वाले फलों में केले का प्रमुख स्थान है। केले में अनेक खनिज पदार्थों तथा पोषक तत्वों के अतिरिक्त 'ए', 'बी', 'सी' और 'डी' नामक विटामिन (vitamins) बहुत बड़ी मात्रा में पाये जाते हैं जिनका हमारे भोजन में बड़ा ही महत्व है। केले में प्रोटीन 1.78%, वसा 1.8%, चीनी 26% तक और क्षार 0.95% पाये जाते हैं।
केले का फल स्वादिष्ट, कोमल और मीठा होता है। बच्चे और बूढ़े सभी लोग इसे चाव से खाते हैं। कहीं-कहीं तो केले का मुख्य भोजन के रूप में भी प्रयोग होता है। केले के फल को सुखाकर उससे आटा भी तैयार किया जाता है। केले से सब्जी तथा रायता भी तैयार किया जाता है।
हमारे देश में हिन्दुओं के सारे धार्मिक तथा शुभ कार्यों में केले को प्रमुख स्थान मिला हुआ है। कोई भी धार्मिक उत्सव अथवा शादी-विवाह ऐसा सम्पन्न नहीं होता जिसमें केले के पौधों अथवा पत्तों का प्रयोग न किया जाता हो। केले के फलों को देव-पूजा में भी प्रमुख स्थान प्राप्त है।
उद्भव
केले की जन्मभूमि के सम्बन्ध में विद्वानों में मतभेद है लेकिन ऐसा विश्वास किया जाता है कि केले की जन्मभूमि एशिया के-भारत, मलाया, इण्डोचाइना और थाइलैण्ड इत्यादि उष्ण भाग हैं। भारत में केले का उत्पादन और उपभोग उतना ही पुराना है जितनी पुरानी हमारी सभ्यता और संस्कृति है। संस्कृत साहित्य में अनेक स्थानों पर केले का नाम मिलता है जहाँ इसे अनेक नामों से सम्बोधित किया गया है 'कदली फल', 'राजेष्ठा', 'अनुमत्फला', 'काष्टीला', 'अंशुफला', 'सुफला' इत्यादि नाम केले के ही पर्यायवाची
उत्पादन केन्द्र
हमारे देश में तमिलनाडु, बंगाल, महाराष्ट्र, गुजरात, कर्नाटक, आन्ध्र प्रदेश, बिहार और उत्तर प्रदेश में केला हजारों हैक्टेयर भूमि में लगाया जाता है। हमारे देश में लगभग 1.60 लाख हैक्टेयर भूमि में केला उगाया जाता है और क्षेत्रफल की दृष्टि से इस फल को आम के बाद दूसरा स्थान प्राप्त है।
जलवायु
केला एक उष्ण-प्रदेशीय फल है। यह गर्म और तर जलवायु चाहता है और अधिकतर नम जलवायु में फलता-फूलता है। हमारे प्रदेश में केले को मुख्यतः गृह-वाटिकाओं के किनारे लगाने का चलन है। लेकिन देश के दक्षिणी भाग में केले के बड़े-बड़े उद्यान लगाये गये हैं जहाँ केले को व्यापारिक स्तर पर लगाया जाता है। केला पाले (frost) को सहन करने की क्षमता रखता है, लेकिन तेज हवा से पौधों को हानि पहुँचती है। उन स्थानों में जहाँ 175 सेमी० से 200 सेमी० वर्षा होती है, केला अच्छी उपज देता है। लेकिन सिंचाई की सुविधा उपलब्ध होने पर यह कम वर्षा वाले स्थानों में भी सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है। खेती केला विभिन्न प्रकार की जलवायु में उगाया जाता है। हमारे देश में समुद्र की सतह से 1000 मीटर ऊँचे स्थानों तक में केले की खेती होती है। लेकिन जिन स्थानों में तेज धूप और अधिक वर्षा होती है, यहाँ केला अपेक्षाकृत अच्छी उपज देता है।
उन्नत किस्में
केले की विभिन्न फसलों को दो वर्गों में बाँटा गया है-
1. वे किस्में जो फल के रूप में खाये जाने के लिये उगायी जाती हैं।
2. ये किस्में जो शाकभाजी के रूप में प्रयोग किये जाने के लिये उगायी जाती है।
पहले वर्ग में
(अर्थात् फल के रूप में खाये जाने के लिये)
(1) पूवन, (2) कर्पूर, (3) चक्रकेलि, (4) मर्तमान, (5) चम्पा, (6) अमृत सागर, (7) बसराई ड्वार्फ, (8) सफेद बेलची, (9) लाल वेलची, (10) रजेली, (11) रसथाली, (12) शिरुमलाई, (13) कदली, (14) पचनदन, (15) हरी छाल, (16) चिनिया, (17) अलपना, (18) माल भोग, (19) मोहन भोग तथा (20) रोबस्टा, (21) लाल केली। ग्रेन्डनैन (G-9), संकर H-1, FHIA-1 (पनामा बिल्ट
रोधी)
शाकभाजी के लिये (1)
नेन्द्रन, (2) मन्यन, (3) माइण्डोली, (4) पछमोंय, (5) हजारा, (6)
बाविस, (7) ग्रासमाइकेल, (8) चम्पा, (9) चिनियाँ, (10) मर्तमान, (11) राय केला, (12) अमृतमान,
(13) काबुली, (14) कोलम्बो, (15) मुबेली (16) बम्बई, (17) हरी छाल, (18) मुठिया, (19) केपियर
गंज तथा (20) रामकेला इत्यादि
जातियों उगाई जाती हैं। इसके अतिरिक्त मोरिशस, माइकेल और
पूवन इत्यादि जातियाँ भी
उगाई जा रही हैं। उत्तर प्रदेश में माल भोग, अमृत सागर, केला हरी छाल, बसराई ड्वार्फ, बलिया हजारा, अलपान केले की
किस्में उगाई जाती हैं। ग्रेन्डनेन नवीन विकसित जाति है।
भूमि
गहरी, उपजाऊ, अधिक पानी धारण
करने की शक्ति रखने वाली दोमट भूमि उपयुक्त रहती है। तालाब के किनारे भारी तथा नम
भूमि में भी केला अच्छी उपज देता है। लेकिन साधारणतः केला किसी भी प्रकार की
मिट्टी में उगाया जा सकता है यदि उसमें गोबर का खाद पर्याप्त मात्रा में देने के
लिये उपलब्ध हो तथा साथ ही पानी का निकास अच्छा हो।
खाद
केले के प्रत्येक पौधे के
लिये प्रतिवर्ष 250 ग्राम नाइट्रोजन, 100 ग्राम फॉस्फोरस अम्ल तथा 200 ग्राम पोटाश की
आवश्यकता होती है। नाइट्रोजन चार बराबर मात्राओं में अगस्त, सितम्बर, मार्च एवं अप्रैल
में दें। फॉस्फोरिक अम्ल की पूरी मात्रा पुत्तियों लगाने के 2 या 3 दिन पहले गड्ढे
में मिला दें। पोटाश की आधी मात्रा नाइट्रोजन के साथ अगस्त में तथा शेष आधी मात्रा
अप्रैल में
दें। केले की अधिकतम उपज
पाने के लिये 18 किग्रा० गोबर की खाद प्रति पौधा लगाते समय तया 2.250 किग्रा० अण्डी की खुली टापड्रेसिंग द्वारा तीन बार में दी जानी चाहिये।
प्रवर्धन
केला अधोभूस्तारी अर्थात्
सकर (sucker) द्वारा प्रवर्धित किया जाता है। ये दो प्रकार के होते
हैं-तलवार सकर (sword sucker) और पानी वाले खकर (water sucker)। तलवार सकर की पत्तियाँ कम चौड़ी तलवार के आकार की हाती
हैं और नये पौधे तैयार करने के लिये इनको सबसे अच्छा माना जाता है। पानी बाले सकर
की पत्तियों चौड़ी होती हैं और पौधे भी कमजोर होते हैं। अधोभूस्तारी ऐसे पौधों से
लेना चाहिये जो ओजस्वी तथा परिपक्व हों और किसी प्रकार के रोग और कीड़े से
प्रभावित न हों। 3 से 4 महीने पुराने सकर
प्रवर्धन के लिये बहुत अच्छे होते हैं। केले के प्रकन्द (rhizome) से भी नये पौधे तैयार हो सकते हैं। बहुत अधिक पौधे जल्द तैयार करने के लिये
पूरा प्रकंद या इसके टुकड़े काटकर प्रयोग करना चाहिये। वह ध्यान रहे कि प्रत्येक
भाग में एक कली रहे जहाँ से नया प्ररोह निकल सके। इनसे पौधा बनने में थोड़ा अधिक
समय अवश्य लगेगा परन्तु पैदावार पर कोई बुरा असर नहीं पड़ेगा। पुत्तियाँ (suckers) मातृ पौधे की जड़ों से काटकर निकालते हैं। साधारणतः 60 से 90 सेन्टीमीटर ऊँचाई
की पुत्तियों (suckers) उपयुक्त होती हैं।
अधोभूस्तारी या
पुत्तियों का रोपण
केले के पौधे खेत में
वर्षा ऋतु में जुलाई से लेकर सितम्बर तक रोपे जाते हैं। केले गहे अथवा नालियों में
रोपे जाते हैं। केला रोपने के लिये मई में 1/2 मीटर व्यास के 1/2 मीटर गहरे गड़े 2×1.5 मीटर की दूरी पर खोद लेने चाहिये और उन्हें गोबर की खाद में मिट्टी मिलाकर
जुलाई के प्रारम्भ में भर देना चाहिये। यदि नालियों में केला रोपना हो तो 50 सेमी चौड़ी और 50 सेमी गहरी
नालियों 2 मीटर की दूरी पर खोद लेनी चाहिये और इनमें प्रति हैक्टेयर 200 क्विंटल गोबर की
खाद डाल देनी चाहिये तत्पश्चात् इन गड्ढों में अथवा 1.5 मीटर की दूरी पर
नालियों के बीच में केले की पुत्तियों रोप देनी चाहिये। रोपाई से पहले प्रत्येक
पुत्ती को तेज औजार से काट दीजिये और भूमिगत तने के कटे हुए भाग को सेरेसान या
ऐगलोल के 0.25 प्रतिशत घोल में एक मिनट तक डुबाइये। फरवरी-मार्च का समय भी खेत में केला रोपने के लिये उत्तम
रहता है। लेकिन यह उन्हीं स्थानों में सम्भव है जहाँ पर पर्याप्त सुविधा उपलब्ध हो।
निकाई-गुड़ाई और
देखभाल
केले की पुत्तियाँ रोपने
के तुरन्त बाद खेत में सिंचाई कर देनी चाहिये।
तत्पश्चात् इस बात का
विशेष ध्यान रखना चाहिये कि खेत में खरपतवार न होने पायें। इसके लिये केले के खेत
मे कई बार निकाई-गुड़ाई करने की आवश्यकता होगी। निकाई-गुड़ाई द्वारा केले की जड़ों
के फैलाव में भी सहायता मिलती है। अतः पौधों के प्रारम्भिक जीवन में निकाई-गुड़ाई
का और भी अधिक महत्व है। बाद में तो पौधों के इधर-उधर 2-3 पत्तियाँ निकल
आने और पौधों की पत्तियों के बढ़ जाने पर उनकी जड़ों के निकट छाया रहने के कारण
खरपतवार अधिक नहीं होते।
पैतृक वृक्ष की वृद्धि के
समय नीचे से बहुत से अधोभूस्तारी निकलते रहते हैं जो पौधों की वृद्धि में रुकावट
डालते हैं। इसलिये जब तक पैतृक वृक्ष में फूल न आये तब तक किसी भी अधोभूस्तारी को
आगे वृद्धि करने के लिये नहीं छोड़ना चाहिये। फूल आने के समय एक शक्तिशाली अधोभूस्तारी
(पुत्ती) को आगे वृद्धि करने देना चाहिये। जब पैतृक वृक्ष के फल पक जायें उस समय
दूसरे अधोभूस्तारी को आगे वृद्धि करने देना चाहिये। उस समय पहला अधोभूस्तारी या
पुत्ती 5 माह का होता है जो पैतृक वृक्ष का स्थान ले लेता है। इस
प्रकार 6-6 महीने बाद एक-एक अधोभूस्तारी (पुत्ती) की वृद्धि करके इसकी
बहुवर्षीय फसल को नियमित किया जा सकता है। जिस और केले की
पैर आती है उस ओर पौधे झुक जाते हैं और कभी-कभी तो पौधे गिर भी पड़ते हैं। अतः धैर
के बोझ के कारण केले के पेड़ों को गिरने से बचाने के लिये उनके नीचे लकड़ी का एक
आलम्ब बना देना चाहिये जो कि पौधे को सहारा दे सके और पौधे को भूमि पर न लेटने दे।
घेर आने के समय तने के चारों और लगभग 20-25
सेमी० मिट्टी चढ़ा देनी
चाहिये।
सिंचाई
केले में सिंचाई की काफी
आवश्यकता होती है। वर्षा ऋतु के उपरान्त जाड़े की ऋतु में 25-30 दिन के अन्तर से केले के खेत में सिंचाई करते रहना चाहिये। इस ऋतु की सिंचाई
से केले में पाले द्वारा हानि का भय नहीं रहता। ग्रीष्म ऋतु में अपेक्षाकृत
जल्दी-जल्दी सिंचाइयों की आवश्यकता होती है। अतः आवश्यकतानुसार 15-20 दिन के अन्तर से केले की फसल की सिंचाई की जाती रहनी चाहिये। वर्षा-ऋतु में यदि वर्षा में अधिक
विलम्ब हो जाये तो फसल में सिंचाई कर देनी चाहिये। असल में जिस क्षेत में केला
बोया गया हो उसमें भूमि को कभी सूखने नहीं देना चाहिये।
फूल और फल लगना
दक्षिण तथा पश्चिम भारत
में केले की अगेती किस्में रोपाई के लगभग सात महीने बाद फूलने लगती हैं। केला
फूलने के अगले सात महीने के अन्दर फलियाँ पक कर तैयार हो जाती हैं। इस प्रकार पूवन
किस्म की पहली फसल केलों की रोपाई के लगभग 14 महीने पश्चात् उपलब्ध हो
जाती है और दूसरी फसल 21-24 महीन के बीच तैयार हो जाती है। जिस पेड़ पर एक
बार पैर आ जाती है उस पर दुबारा धैर नहीं लगती। अतः धैर तोड़ लेने के बाद उस पेड़
को भूमि की सतह से काट दिया जाता है। तना काट देने से बगल की पुत्तियाँ शीघ्र
विकसित हो जाती हैं। किन्तु इस तने को एक बार में नहीं काटना चाहिये क्योंकि ऐसा
करने से बगल वाली पुत्ती को अकस्मात अधिक भोजन प्राप्त हो जाने से हानिकारक प्रभाव
पड़ता है। अतः धैर काटने के लगभग 20 दिन के पश्चात् ही तने को दो बार में काटना
चहिये।
केले का' फूल लाल रंग का
होता है। इस फूल में नर और मादा दोनों ही भाग पाये जाते हैं। हमारे प्रदेश में हरी
छाल का केला बहुत पसन्द किया जाता है। यह केला बसराई किस्म में से ही
है। इस केले की पौध को
रोपने के लगभग 10-12 महीने बाद उसमें फूल निकलता है और उसके लगभग 4 महीने बाद फल
काटे जाने के योग्य हो जातें हैं।
कटाई
केले पेड़ पर गुच्छों के
रूप में निकलते हैं। केले के गुच्छों को ही धैर कहते हैं। धैर को इस प्रकार से
काटा जाता है कि बैर के साथ लगभग 30 सेमी डण्ठल भी कट जाये।
उपज
केले के एक पेड़ से केवल
एक धैर मिलती है। इस प्रकार एक हैक्टेयर खेत में लगभग 3333. धैर निकलती हैं। एक धैर में 50 से लेकर 100 फलियाँ तक लगती हैं। इस
प्रकार प्रति हैक्टेयर लगभग 250 कुन्तल केला प्राप्त होता है। बसराई ड्वार्फ, पूवन, चम्पा किस्मों की
उपज अधिक होती हैं।
फलों को पकाना
केले की फलियाँ पेड़ पर
नहीं पकतीं। अतः केले की धैर में केलों का अपना पूरा आकार ग्रहण कर लेने पर धैर को
कच्चा ही पेड़ से काटकर अलग कर लिया जाता है। केले की पैर पकाने के लिये डण्ठल के
कटे हुये भाग पर बुझा हुआ चूना लगाना चाहिये। अधिक समय तक धैर को ताजा व सुरक्षित
रखने के लिये चूने के स्थान पर मोम या वैसलीन लगा सकते हैं।
साधारणतः फलों को
पकाने के लिये निम्नलिखित विधि काम में लायी जाती हैं-
1. पूर्ण धैर को बन्द कमरे
में पुआल, बोरा या केले की सूखी पत्तियों के बीच ढककर रख देते हैं। इस
भाँति लगभग एक सप्ताह में फलियाँ पक जाती हैं।
2. धैरों को भूमि से 1.5 से 2.5 मीटर की ऊँचाई पर
कमरे में बाँस या लोहे की छड़ों के सहारे लटका देते हैं। तत्पश्चात् कमरे को बन्द
करके 18 से 24 घण्टे तक धुआँ करते हैं। इसके उपरान्त धैरों को
बिना धुआँ वाले कमरे मे वन्द कर देते हैं जिससे फलियाँ 2-3 दिन में पक जाती
हैं।
3. धैर की फलियों को पृथक्
करके ढेर बना देते हैं और उसके ऊपर घास-फूस रखकर मिट्टी का लेप कर देते हैं। ऊपर
थोड़ा स्थान खुला रखते हैं जिस पर मिट्टी के घड़े में भूसा भरकर उलटकर रख देते हैं
जिससे कि घड़े का मुख केले के सम्पर्क में आ जाये। घड़े के पेंदे में छेद करके
भूसे को जलाते हैं जिससे धुआँ केले के सम्पर्क में आ जाता है और फलियाँ पक जाती
हैं।
4. घरेलू प्रयोग के लिये
बड़े मिट्टी के घड़े में फलियाँ रख देते हैं। अब एक छोटे मिट्टी के घड़े में भूसा
भरकर घड़े के मुख पर उलट देते हैं और विधि (3) की ही भाँति फलियाँ पकाते
हैं।
5. आजकल केलों को कार्बाइड रसायन से पकाते हैं।
जिससे एसिटिलीन गैस निकलती है।
कीट नियन्त्रण
(1) तना छेदक (Stem weevil or borer) - इस कीठ की सूडियाँ (grubs) पौधे के तने में छेद करती
हैं जिसके कारण सड़ांव हो जाता है।
रोकथाम पेरिक ग्रीन को 6 गुना आटा मिलाकर जहरीली
गोलियों (poison baits) के रूप में छिड़क देना चाहिये। प्रभावित पौधों
में प्रति पौधा 30-50 ग्राम लिन्डेन 1.3% डस्ट जमीन में मिलानी
चाहिये।
(2) फल छेदक (Fruit boring caterpillar) फली में नीच की ओर से छिद्र करता है
तथा अन्दर फली में सुरंग (tunnel) बना देता है जिसके कारण फली सड़ जाती है।
रोकथाम -0.25%
सुमिसीडीन का छिड़काव
करना चाहिये।
(3) मूल छेदक सूत्र कृमि (Root boring thread worms) यह कीट जड़ों पर आक्रमण करता है तथा जड़ों पर छोटे-छोटे
गुच्छे बन जाते हैं जिसके कारण सकर्स की बढ़वार मारी जाती है। रोकथाम प्रति वर्ष
खेत की जुताई करना तथा सही फसल-चक्र को अपनाना चाहिए।
रोग नियन्त्रण
1. पनामा रोग (विल्ट) केले के पौधों को बड़ी बेरहमी के साथ
क्षति पहुँचाने वाला यह पनामा रोग आर्थिक दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण है। केले का
पौधा जब पाँच माह का हो जाता है तब यह रोग अधिक स्पष्ट दिखाई पड़ता है। सर्वप्रथम
नीचे की पुरानी पत्तियों पर हल्की पीली धारियाँ बनती हैं और इसके बाद दो प्रकार के
लक्षण दिखाई देने लगते हैं। एक प्रकार के लक्षण मे पत्तियों का पीलापन बढ़ता जाता
है और वे टूटकर लटक जाती हैं और बाद में पौधा एक दम सूख जाता है तथा दूसरे प्रकार
के लक्षण में पत्तियाँ हरी ही रहती हैं परन्तु टूटकर लटक जाती हैं। प्रभावित पौधों
में जो नयी पत्तियाँ निकलती हैं उनकी संतह दागदार पीली तथा सिकुड़नदार होती है।
ऊपर की नई पत्तियों को छोड़कर प्रायः सभी पत्तियाँ गिर जाती हैं कभी-कभी तो केवल
तना ही अवशेष दिखाई देता है। जिस बाग में इस रोग का एक बार पदार्पण हो जाता है तो
कोई भी ऐसा पौधा नहीं होता जो कि इस रोग के माया जाल से बच सके।
यह रोग एक फफूँद द्वारा
उत्पन्न होता है जिसे 'फ्यूजेरियम ऑक्सीस्पोरियम फ्यूबेन्स' कहते हैं। यह
फफूँद मिट्टी में रहता है तथा क्षतिग्रस्त जड़ तथा चोट खाये प्रकंद में प्रवेश कर
पौधों को प्रभावित करता है। यह पानी द्वारा फैलकर पौधे के सम्पर्क में आ जाता है।
रोकथाम (1)
जिस बाग में यह रोग लग
गया हो उसमे केले की खेती 3 से,
5 वर्षों तक बन्द कर देनी
चाहिये। प्रतिरोधी किस्में जैते कवेन्डिश जाति के केले, अमृतसाग्रर तथा
बसराई आदि उगानी चाहिये।
(2) नाइट्रोजन की मात्रा कम
कर देनी चाहिये।
(3) प्रभावित पौधों को सकर
सहित उखाड़ कर नष्ट कर देना चाहिये।
(4) प्रभावित बाग में पानी
भरने (जल प्लावन) से कार्बन डाइ-ऑक्साइड तथा एसीटिक अम्ल की उपस्थिति बढ़ जाती है
जिसके फलरूवरूप फफूँदी की संख्या में काफी कमी हो जाती है।
(5) वाविस्टिन की 10 से 20 ग्राम मात्रा को 10 लीटर पानी में
घोलकर मिट्टी में मिलाना चाहिये।
(6) नीम की खली 25 कु०/है० प्रयोग
करने से रोकथाम 'होती है।
2. गुच्छा शीर्ष रोग (बन्ची टाप)- यह विचित्र किस्म का वायरस रोग है। रोग का
प्रकोप पौधे की किसी भी अवस्था में हो सकता है। उग्र आक्रमण में पत्तियाँ छोटी तथा
पतली हो जाती हैं, किनारे ऊपर की ओर मुड़ जाते हैं, पत्तियाँ खड़ी
दिखाई पड़ती हैं और पौधे की ऊपरी सिरे की पत्तियाँ गुच्छे का रूप धारण कर लेती
हैं। पौधे छोटे रह जाते हैं जिनसे उत्पादन अच्छा नहीं मिलता। यह
रोग कवेन्डिश जाति के केले जैसे काबुली, हरी छाल में अधिक लगता
है। यह रोग केला में वायरस से पैदा होता है। कुछ वैज्ञानिकों का
मत है कि यह एक माइको प्लाज्मा द्वारा उत्पन्न होता है। यह वायरस एक माहू द्वारा
फैलाया जाता है जिसे 'पेन्टोलोनिया नाइग्रो नर्वोसा' कहते हैं। ये
माहू भूमि की सतह पर तथा भूमि के कुछ नीचे चारों तरफ पाये जाते हैं। उग्र आक्रमण
में ये ऊपरी पत्तियों के चारों तरफ समूह में पाये जाते हैं। रोग फैलाने की क्षमता
इनमें इतनी अधिक होती है कि प्रभावित पौधों को नष्ट कर देने के बाद भी 13 दिन तक ये रोग
फैलाने की क्षमता रखते हैं।
रोकथाम
(1) प्रभावित पौधों को
उखाड़कर नष्ट कर देना चाहिये।
(2) प्रभावित बाग से सकर नहीं
लेना चाहिये।
(3) माहू के कीट नियन्त्रण
हेतु साइपरमेथ्रिन 1.5 लीटर, 1000 लीटर पानी में मिलाकर
प्रति हैक्टेयर की दर से पौधों पर छिड़काव करना चाहिये।
3. फल विगलन या झुलसा (एन्थ्रेक्नोज)- इस रोग में नई पत्तियाँ, फूल तथा फल अधिक
प्रभावित होते हैं। सर्वप्रथम पत्तियों पर गहरे काले रंग के धब्बे बनते हैं। फूल
काले पड़कर, मुड़कर टूट जाते हैं तथा गिर जाते हैं। बरसात में बने हुए
फलों पर इस रोग का अधिक प्रकोप होता है। फलों पर जो काले रंग के धब्बे बनते हैं वे
फलों की वृद्धि के साथ बढ़ते चले जाते हैं। जितसे फल सिकुड़कर काले पड़ जाते हैं।
ऐसे फलों का बाजार भाव गिर जाता है तथा लम्बे समय तक रखे भी नहीं जा सकते । यह रोग
बसराई तथा हरी छाल में अधिक लगता है। यह रोग फफूँदी द्वारा
उत्पन्न होता है जिसे 'ग्यीयोस्पोरियम फ्यूजेरम' कहते हैं। यह
फफूँद नम मौसम मे मुख्य रूप से बरसात 'में काफी सक्रिय होता है।
रोकथाम (1)
प्रभावित पौधों को नष्ट
कर देना चाहिये।
(2) इस रोग के सफल नियन्त्रण
हेतु फफूँदी नाशकों का प्रयोग वर्ष में 2 या 3 बार अवश्य करना
चाहिये। प्रथम छिड़काव फूल आने के 2 सप्ताह पूर्व तथा दूसरा छिड़काव 3 माह बाद करना
चाहिये। इसके लिये कॉपर आक्सीक्लोराइड या सुटोक्स के 0.3 प्रतिशत के घोल
का छिड़काव उत्तम होता है। गुच्छा बनते समय 30 से 75 ग्राम बाविस्टिन
को 10 लीटर पानी में घोलकर ठिड़काव करने से भी अच्छा परिणाम
प्राप्त होता है। बाविस्टिन की 50 ग्राम मात्रा को 100 लीटर पानी में
घोलकर केला की छिमियों को 2 मिनट तक डुबोना "चाहिये। इसमें छिमियाँ
स्वस्थ रहती हैं तथा भण्डारण एवं यातायात में खराब नहीं होतीं।
4. अन्त विगलन (हार्टराट)- इस रोग में पौधों के अन्दर की पत्तियाँ गल जाती हैं और नई
पत्तियों के निकलने में रुकावट पैदा होती है। इस प्रकार से पत्तियों का गलना अन्दर
की ओर बढ़ता चला जाता है और अन्ततोगत्वा फूल नहीं निकल पाता। यह रोग भी फफूँदी
द्वारा उत्पन्न होता है।
रोकथाम (1)
खेत में पानी का अच्छा
निकास होना चाहिये।
(2) पौधों को उचित दूरी पर
(लम्बी किस्मों के लिये 2.7 मीटर तथा बौनी किस्मों के लिये 1.8 मीटर) लगाना
चाहिये।
(3) बाग में सूर्य की रोशनी
भली-भाँति पहुँचनी चाहिये।
(4) जैसा कि फल विगलन रोग की
रोकथाम के लिये दवाओं का छिड़काव बतलाया गया है वैसा ही इसके लिये भी प्रयोग करें
Very nice information raja ji 👍👍
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